शिशिरामधल्या पाचोळ्याने
भगवतीचरण वर्मा यांच्या रचनेचा अनुवाद करण्याचा माझा प्रयत्न...
कधी पाहिला प्रिये वसंत शिशिरामधल्या पाचोळ्याने
ओठावरती स्मीत फ़ुलवले कधी आजच्या उमाळ्याने
मोती होऊन डोळ्यामधुनी ओघळले जे अश्रूंमधुनी
खरे सांगतो स्वप्नांना त्या जपले होते विश्वासाने
प्रेमरसाने भरली हृदये, कितीक डोळे गहिरे हळवे
अलिप्त जन्म-मरणापासून, रमले कोमल मिठीसवे
तूच आगळी कशास आयुष्यावर माझ्या भार सखे
तूच बांधूनी प्रेमामध्ये, तूच तोडले, आसवांसवे
मनी मानसी स्पंदनातुनी कधी विहरत गेलीस का?
प्राणांची प्राणांशी गुंफ़ण सांग कधी मी जपली का?
तुला-मला दुजाच कोणी भेटवतो ना इथे तिथे
सांग एकदा आपल्या हृदयी प्रेम उमलले होते का?
ज्या उदधीतून अमृत आले त्याच्या हृदयी विषही होते
आगतिकता प्राणांची त्या कोकिळ पंचम स्वरांत असते
विलय जयाला जग म्हणते तो असतो क्रम उत्पत्तीचा
कशी कळावी तुज श्रीमंती माझ्या ध्वस्त घरी वसते
काल तुजसाठी व्याकुळलो.. आज माझा, मी, मजला
बांधत होते जोखडात त्या स्वप्नांचा मी गाव सोडला
पायी निखारे वेगाचे अन मस्तकावर जीवन ज्योती
रडूनी ज्याला ताप म्हणालीस, हसण्याचा तो खेळच झाला
पुढे पुढे मी जातो क्षणक्षण, वरती खाली वेगच सारा
फ़िरतच असते अंबर अवघे फ़िरते अवघी हीच धरा
भ्रमात भ्रमुनी भ्रमिष्ट जगी या भेटलीस ना तू मजला
नश्वर दुनिया, नश्वर तूही, मीच अमर हा मंत्र खरा
मूळ रचनाकार : भगवतीचरण वर्मा
भावानुवाद - प्राजु
पतझड़ के पीले पत्तों ने प्रिय देखा था मधुमास कभी;
जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी;
आँखों के मोती बन-बनकर जो टूट चुके हैं अभी-अभी
सच कहता हूँ, उन सपनों में भी था मुझको विश्वास कभी ।
कितने ही रस से भरे हृदय, कितने ही उन्मद-मदिर-नयन,
संसृति ने बेसुध यहाँ रचे कितने ही कोमल आलिंगन;
फिर एक अकेली तुम ही क्यों मेरे जीवन में भार बनीं ?
जिसने तोड़ा प्रिय उसने ही था दिया प्रेम का यह बन्धन !
कब तुमने मेरे मानस में था स्पन्दन का संचार किया ?
कब मैंने प्राण तुम्हारा निज प्राणों से था अभिसार किया ?
हम-तुमको कोई और यहाँ ले आया-जाया करता है;
मैं पूछ रहा हूँ आज अरे किसने कब किससे प्यार किया ?
जिस सागर से मधु निकला है, विष भी था उसके अन्तर में,
प्राणों की व्याकुल हूक-भरी कोयल के उस पंचम स्वर में;
जिसको जग मिटना कहता है, उसमें ही बनने का क्रम है;
तुम क्या जानो कितना वैभव है मेरे इस उजड़े घर में ?
कल तक जो विवश तुम्हारा था, वह आज स्वयं हूँ मैं अपना;
सीमा का बन्धन जो कि बना, मैं तोड़ चुका हूँ वह सपना;
पैरों पर गति के अंगारे, सर पर जीवन की ज्वाला है;
वह एक हँसी का खेल जिसे तुम रोकर कह देती 'तपना'।
मैं बढ़ता जाता हूँ प्रतिपल, गति है नीचे गति है ऊपर;
भ्रमती ही रहती है पृथ्वी, भ्रमता ही रहता है अम्बर !
इस भ्रम में भ्रमकर ही भ्रम के जग में मैंने पाया तुमको;
जग नश्वर है, तुम नश्वर हो, बस मैं हूँ केवल एक अमर !
रचनाकार: भगवतीचरण वर्मा
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